' कौन कितना प्रभु '

 ' कौन कितना प्रभु '


अवश्य पड़े पवित्र पुस्तक कबीर बाद या कृष्ण 

इस पुस्तक में श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी, श्री देवी दुर्गा जी, श्री काल ब्रह्म जी (क्षर ब्रह्म यानि क्षर पुरूष), श्री परब्रह्म जी (अक्षर ब्रह्म यानि अक्षर पुरूष) तथा परम अक्षर ब्रह्म जी (परम अक्षर पुरूष यानि संत भाषा में जिसे सत्यपुरूष कहते हैं) की यथा स्थिति बताई है जो संक्षिप्त में इस प्रकार है:-

परम अक्षर ब्रह्म {जिसका वर्णन गीता अध्याय 8 श्लोक 3, 8-10 तथा 20-22 में तथा गीता अध्याय 2 श्लोक 17, गीता अध्याय 15 श्लोक 17, गीता अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, 66 में है जिसकी शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान बोलने वाले ने अर्जुन को कहा है तथा कहा है कि उसकी शरण में जाने से परम शान्ति यानि जन्म-मरण से छुटकारा मिलेगा तथा (शाश्वतम् स्थानम्) सनातन परम धाम यानि अविनाशी लोक (सतलोक) प्राप्त होगा।}:- यह कुल का मालिक है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में इसी की शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता ने कहा है।

श्लोक 66 में कहा है कि (सर्वधर्मान्) मेरे स्तर की सर्व धार्मिक क्रियाओं को (परित्यज्य माम्) मुझमें त्यागकर तू (एकम्) उस कुल के मालिक एक परमेश्वर की (शरणम्) शरण में (व्रज) जा। (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्व) सब (पापेभ्यः) पापों से (मोक्षयिष्यामि) मुक्त कर दूँगा, (मा शुच) शोक न कर। यह एक परमेश्वर सबका मालिक सबसे बड़ा (समर्थ) कबीर जी है जो काशी (बनारस) शहर (भारत देश) में जुलाहे की लीला किया करता तथा यथार्थ व सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान (सूक्ष्मवेद) को बताया करता था। इसी ने सर्व ब्रह्मंडों की रचना की है। इसी ने क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा देवी दुर्गा (अष्टांगी देवी) समेत सर्व जीवात्माओं की उत्पत्ति की है।

यह तथ्य इतना सत्य जानो जैसे आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व एक वैज्ञानिक ने बताया था कि पृथ्वी अपने अक्ष (धुरी) पर घूमती है जिसके घूमने से दिन तथा रात बनते हैं। उस समय सब मानते थे कि सूर्य, पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। जिस कारण से दिन तथा रात बनते हैं। संसार के सब मानव का यही मत था। इस झूठ को इतना सत्य मान रखा था कि उस वैज्ञानिक का विरोध करके फाँसी पर चढ़वा दिया। आज वह चार सौ वर्ष पूर्व वाली बात सत्य साबित हुई। सूर्य घूमता है, यह झूठ सिद्ध हुई।

वर्तमान में काशी के जुलाहे कबीर को कुल का मालिक बताना इतना सत्य है जितना चार सौ वर्ष पूर्व पृथ्वी को अपनी धुरी पर घूमना बताना था। आप पाठकजन इस पुस्तक को पढ़कर मान लोगे कि वास्तव में कबीर जुलाहा पूर्ण परमात्मा है। (Kabir is Complete God) सतलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अकह लोक/अनामी लोक, इन चार लोकों का समूह अमर लोक यानि सनातन परम धाम कहलाता है। इन चारों अमर लोकों में कबीर जी की राजधानी है। उनमें तख्त (सिहांसन) बने हैं। उस सिहांसन के ऊपर बैठकर परमेश्वर कबीर जी राजा की तरह सिर के ऊपर मुकुट तथा छत्र आदि से शोभा पाता है। सतलोक में ‘सतपुरूष’ कहलाता है। अलख लोक में ’अलख पुरूष‘, अगम लोक में ’अगम पुरूष‘ तथा अनामी लोक में ’अनामी पुरूष‘ की पदवी प्राप्त है। जैसे भारत देश का प्रधानमंत्री जी देश का एकमात्र शासक है। प्रधानमंत्री जी अपने पास कई विभाग भी रख लेता है। उनके दस्तावेज पर हस्ताक्षर करता है तो मंत्री लिखा जाता है। प्रधानमंत्री कार्यालय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करता है तो प्रधानमंत्री लिखा जाता है। व्यक्ति वही होता है। कबीर परमेश्वर विशेषकर सतलोक (सत्यलोक) में बैठकर सब नीचे व ऊपर के लोकों को संभालते हैं। इसलिए सतलोक का विशेष महत्व हमारे लिए है। उसमें सतपुरूष पद से जाना जाता है। इसलिए ‘‘सतपुरूष’’ शब्द हमारे लिए अधिक मायने रखता है। जैसे प्रधानमंत्री जी का शरीर का नाम अन्य होता है। ऐसे सतपुरूष यानि परम अक्षर ब्रह्म का नाम ‘‘कबीर है।

सतपुरूष कबीर जी की सत्ता अक्षर पुरूष के सात संख ब्रह्मंडों पर तथा अक्षर पुरूष के ऊपर भी है तथा क्षर पुरूष तथा इसके इक्कीस ब्रह्मंडों के ऊपर भी है। इसलिए परम अक्षर ब्रह्म को वासुदेव (सब जगह पर अपना अधिकार रखने वाला) कहा गया है। गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में इसी वासुदेव के विषय में कहा है। अब श्री ब्रह्मा (रजगुण), श्री विष्णु (सतगुण) तथा शिव (तमगुण) की स्थिति बताता हूँ।

क्षर पुरूष (काल रूपी ब्रह्म) के इक्कीस ब्रह्मंड हैं। एक ब्रह्मंड में तीन लोकों (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा पाताल लोक) में श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा शिव जी एक-एक कृत के स्वामी/प्रभु हैं। जैसे एक प्रांत में एक मुख्यमंत्री होता है जो प्रांत का मुखिया होता है। अन्य मंत्रीगण उसके आधीन होते हैं तथा मुख्यमंत्री जी देश के प्रधानमंत्री जी के आधीन होता है। ऐसे ही क्षर पुरूष (काल ज्योति निरंजन) अपने प्रत्येक ब्रह्मंड में मुख्यमंत्री रूप में है तथा श्री ब्रह्मा जी रजगुण विभाग के, श्री विष्णु जी सतगुण विभाग के तथा श्री शिव जी तमगुण विभाग के मंत्री हैं। केवल तीन लोकों (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा पाताल लोक) के प्रभु (मालिक) हैं।

परम अक्षर ब्रह्म यानि सतपुरूष कबीर जी को प्रधानमंत्री जी तथा देश के राष्ट्रपति जी मानो। अब आप जी समझ लें कि कबीर बड़ा है या कृष्ण। श्री कृष्ण जी व श्री रामचन्द्र जी स्वयं विष्णु हैं जो भिन्न-भिन्न रूपों में जन्में थे। श्री विष्णु जी की स्थिति ऊपर बता दी है।

संत गरीबदास जी को परमेश्वर कबीर जी स्वयं मिले थे। उनको ऊपर के ब्रह्मंडों में लेकर गए थे। सब देवों की स्थिति से अवगत करवाया था। अपने सतलोक में भी लेकर गए थे। अपनी स्थिति से भी अवगत करवाया था। फिर वापिस पृथ्वी के ऊपर छोड़ा था। तब संत गरीबदास जी ने बताया है कि:-

गरीब, तीन लोक का राज है, ब्रह्मा विष्णु महेश।
ऊँचा धाम कबीर का, सतलोक प्रदेश।।
गरीब, अनंत कोटि ब्रह्मंड का, एक रति नहीं भार।
सतगुरू पुरूष कबीर है, कुल के सिरजन हार।।

अधिक जानकारी आगे इसी पुस्तक में पढ़ेंगे।

धार्मिक भावनाओं को ठेस:-

यदि कोई सज्जन पुरूष (स्त्री-पुरूष) उस अंध श्रद्धालु को कहे कि आप जिस देवी-देवता को ईष्ट मानकर जो साधना कर रहे हो, यह गलत है। इससे आपको कोई लाभ नहीं मिलेगा। आपका मानव जीवन नष्ट हो जाएगा। आप देवी-देवताओं की पूजा ईष्ट मानकर ना करो। आप मूर्ति की पूजा ना करो। आप धामों तथा तीर्थों पर मोक्ष उद्देश्य से ना जाओ। आप श्राद्ध न करो, पिण्डदान ना करो। तेरहवीं, सतरहवीं क्रिया या अस्थियाँ उठाकर गति करवाने के लिए मत ले जाओ। आप व्रत न रखो। इसके स्थान पर अन्न-जल करने में संयम करो, न अधिक खाओ, न बिल्कुल भूखे रहो। आप अपने धर्म के शास्त्रों में बताए भक्ति मार्ग के अनुसार साधना करो। वह अंध श्रद्धावान यदि उस सज्जन पुरूष से कहे कि आप अच्छे व्यक्ति नहीं हो। आप ने हमारी धार्मिक भावनाऐं आहत की हैं। चला जा यहाँ से, वरना तेरी हड्डी-पसली एक कर दूँगा। जोर-जोर-से शोर मचाने लगता है। उसके शोर को सुनकर उसी क्षेत्र के उसी तरह उन्हीं देवी-देवताओं व तीर्थों-धामों के उपासकों का हुजूम इकठ्ठा हो जाता है। बात धर्मगुरूओं तक पहुँच जाती है। धर्मगुरू भी वही शास्त्रविरूद्ध मनमाना आचरण करने-कराने वाले होते हैं। उन धर्मगुरूओं की पहुँच उच्च पद पर विराजमान राजनेताओं तक होती है। उन धर्मगुरूओं के फोन मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों या स्थानीय नेताओं को जाते हैं। उच्च पद पर बैठे राजनेता स्थानीय प्रशासन को फोन करके धार्मिक भावनाऐं भड़काने का मुकदमा दर्ज करने को कहते हैं। उनके दबाव में प्रशासनिक अधिकारी तुरंत उस सज्जन पुरूष को गिरफ्तार करके मुकदमा बनाकर जेल भेज देते हैं।

जीवित उदाहरण:- सन् 2011 में मेरे (रामपाल दास-लेखक के) अनुयाई (जिनमें बेटियाँ भी शामिल थी) मध्यप्रदेश प्रान्त के शहर जबलपुर में पुस्तक ‘‘ज्ञान गंगा’’ (जो मेरे सत्संग प्रवचनों का संग्रह करके तैयार कर रखी है) का प्रचार कर रहे थे। लागत 30 रूपये, परंतु 10 रूपये में बेच रहे थे। जिस कारण से हिन्दू श्रद्धालु उत्साह से लेकर जा रहे थे। जब उन्होंने घर जाकर पढ़ा तो लगा कि अनर्थ हो गया। देवी-देवताओं की पूजा गलत लिखी है। धामों-तीर्थों पर जाना व्यर्थ लिखा है। माता दुर्गा का पति बताया है। श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव का जन्म-मरण बताया है। इनके माता-पिता भी बताऐ हैं। हमारे देवताओं का अपमान किया है। मारो-मारो! उन अंध श्रद्धा वालों ने पहले तो प्रचार करने वाले स्त्री-पुरूषों को स्वयं पीटा, फिर थाने ले गए। हजारों अंध श्रद्धावान इकठ्ठे हो गए। जिला प्रशासन में बेचैनी हो गई क्योंकि राजनेताओं के फोन स्थानीय D.C. S.P. I.G. तथा कमिश्नर के पास आने लगे। हमारे एक अनुयाई ने बताया कि उपायुक्त महोदय (Deputy Commissioner) तथा पुलिस अधीक्षक महोदय थाने में आए। पुस्तक ‘‘ज्ञान गंगा’’ ली, उसको वहीं बैठकर पढ़ने लगे।

अधिकारी सुशिक्षित तथा दिमागदार होते हैं I.P.S. तथा I.A.S., उनको समझते देर नहीं लगी कि इस पुस्तक में कुछ भी ऐसा नहीं लिखा है जिससे किसी की धार्मिक भावनाऐं आहत होती हों। सब विवरण शास्त्रों से प्रमाणित करके लिखा है। सुबह दस बजे से शाम के पाँच बजे तक अधिकारी-गण मुकदमा दर्ज करने से बचते रहे, परंतु उन अंध श्रद्धावानों ने मध्य प्रदेश के विधानसभा के अध्यक्ष ने पुनः फोन पर कहा कि अधिकारी केस दर्ज नहीं करना चाहते। तब विधानसभा अध्यक्ष ने अधिकारियों को धमकाया तो प्रशासन ने मजबूरन धार्मिक भावनाओं को भड़काने का मुकदमा IPC की धारा 295-A के तहत दर्ज करके लगभग 35 स्त्री-पुरूषों को जेल भेज दिया। मुकदमा नं 201 दिनाँक-08.05.2011, थाना-मदन महल (जबलपुर)।

विधान सभा अध्यक्ष ने अपने पद का दुरूपयोग करके पाप किया। {उसका फल भी परमात्मा ने उसे तुरंत दिया। वह विधान सभा अध्यक्ष दो महीने बाद ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसका नाम था ईश्वर दास रोहाणी।} इस मुकदमें को माननीय हाई कोर्ट जबलपुर में समाप्त (quash) करने की अर्जी (M.Cr.C. No. 13577-2013) लगाई जो माननीय उच्च न्यायालय जबलपुर (मध्य प्रदेश) ने वह मुकदमा दिनाँक 20.07.2017 को खत्म कर दिया क्योंकि पुस्तक में सर्व ज्ञान शास्त्र प्रमाणित मिला। लेकिन सन् 2011 से सन् 2017 तक निचली अदालतों में तारीख पर तारीखें पड़ी। उन पर सर्व 35 अनुयाई अपना कार्य छोड़कर गए। किराया लगा, ध्याड़ी छोड़ी, वित्तीय नुक्सान तथा परेशानी उन अंध श्रद्धावानों के हित के लिए झेली कि वे इस पुस्तक में लिखे शास्त्रों के प्रमाणों को आँखों देखकर शास्त्रविधि रहित साधना त्यागकर शास्त्रोक्त साधना करके अपने जीवन को धन्य बनाऐं क्योंकि श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में प्रमाण है। इन दोनों श्लोकों का वर्णन पुस्तक में आगे किया है, वहाँ पढ़ें।

धार्मिक भावना:-

अपने धर्म की धार्मिक क्रियाओं तथा परमात्मा से संबन्धित पूजा पद्यति के प्रति गहरी आस्था को धार्मिक भावना कहते हैं।

धार्मिक भावनाओं को आहत करना:-

किसी के धर्म में चल रही पूजाओं तथा उनके परमात्मा के ऊपर बिना आधार के कटाक्ष या आलोचना करना धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना है।

तर्क-वितर्क:-

किसी विषय पर अपनी-अपनी राय देना, अन्य की राय का खंडन करना व अपनी का मंडन करना, अन्य द्वारा अपने सिद्धांत का समर्थन करना, उसके विचारों को गलत बताना, यह तर्क-वितर्क है। इसमें किसी ग्रन्थ को आधार माना जाए तो समाधान है, अन्यथा झूठा झगड़ा है।

लेखक का उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है, परंतु शास्त्रों को आधार मानकर तर्क-वितर्क किया है। सर्व शास्त्रों के प्रमाण को आधार रूप में देकर यथार्थ आध्यात्मिक ज्ञान तथा मोक्ष मार्ग को उद्धृत (उजागर) किया है। यदि इसे धार्मिक भावनाओं का आहत होना माना तो दुर्भाग्य की बात है। मेरा (लेखक का) उद्देश्य है कि विश्व के मानव को परमात्मा की खोज में इधर-उधर भटकने से बचाकर प्रमाणित तथा लाभदायक शास्त्रोक्त अध्यात्म ज्ञान व साधना बताऊँ। उनके मानव जीवन की रक्षा करूँ। यदि यह धार्मिक भावनाओं को आहत महसूस होगा तो कोई बात नहीं, फिर तो यह करना आवश्यक है।

उदाहरण:- एक समय एक लड़के ने कुछ बच्चों को पार्क में एक लकड़ी के खंभे पर चढ़ते-उतरते खेलते देखा। उसने गली में खड़े बिजली के खंभे पर चढ़ना प्रारम्भ किया। एक सज्जन पुरूष ने उसे देखा और दौड़कर उसे ऐसा करने से रोका। बच्चा रोने लगा। माता-पिता को बताया कि एक व्यक्ति ने मुझे खेलने से रोका। वह व्यक्ति उसी गली में रहता था। माता-पिता उस बच्चे को लेकर उस व्यक्ति के पास गए और कारण जाना तो पता चला कि उस व्यक्ति ने तो बच्चे के जीवन की रक्षा की है। बच्चे के माता-पिता गए तो थे झगड़ा करने के उद्देश्य से, परंतु उस व्यक्ति के उपकार का धन्यवाद करके आए।

  • मेरा (लेखक का) यही उद्देश्य है कि हिन्दू धर्म के सब व्यक्ति लकड़ी के खम्बों पर न खेलकर (शास्त्रोक्त साधना न करके) बिजली के खंभों पर चढ़कर मर रहे हैं यानि शास्त्रविरूद्ध मनमाना आचरण करके अनमोल मानव जीवन व्यर्थ कर रहे हैं, उनको शास्त्रोक्त साधना करने के लिए बाध्य करूँ क्योंकि आप मेरे बन्धु हैं। मेरे देश के वासी हैं। परमात्मा के अबोध (अध्यात्म ज्ञान में अनजान) बच्चे हैं। मुझे परमात्मा जी ने सर्व शास्त्रों का यथार्थ ज्ञान दिया है। वर्तमान में सब शिक्षित हैं। शास्त्रों के अध्याय, श्लोक व पृष्ठ तक पुस्तक में लिखे हैं, फोटोकाॅपी भी लगाई हैं। जाँच करें, फिर मानें।

  • इस पुस्तक ‘‘कबीर बड़ा या कृष्ण’’ के लिखने का उद्देश्य है कि आप और मैं हिन्दू धर्म में जन्में हैं। पहले यह दास (रामपाल दास) भी आप वाली साधना लोकवेद वाली ही किया करता था। परमात्मा की कृपा से एक तत्वदर्शी संत मिल गए। उन्होंने शास्त्रों से प्रमाण बताकर मेरी शास्त्र विरूद्ध साधना (जो वर्तमान में हिन्दू धर्म में प्रचलित है) को छुड़वाकर शास्त्रों में लिखी सत्य साधना का उपदेश देकर मेरे मानव जीवन को नष्ट होने से बचाया। उस महापुरूष यानि मेरे पूज्य गुरूदेव स्वामी रामदेवानंद जी महाराज की मेरी एक सौ एक पीढ़ी अहसानमंद रहेंगी।

कबीर परमेश्वर जी ने सूक्ष्मवेद में कहा है कि:-

कबीर, पीछे लागा जाऊँ था, लोक वेद के साथ। मार्ग में सतगुरू मिले, दीपक दीन्हा हाथ।।

अर्थात् बताया है कि एक साधक अपने धर्म में लोक वेद (दंत कथा) यानि सुनी-सुनाई बातों के आधार से (जो शास्त्र प्रमाणित साधना नहीं थी) साधना करता हुआ भक्ति मार्ग पर चला जाऊँ था यानि तीर्थ, धामों पर भटक रहा था। उस मार्ग में सतगुरू (तत्त्वदर्शी संत) मिल गया जिसने शास्त्रों का ज्ञान करवाया यानि जैसे अंधेरे में भटक रहे व्यक्ति को दीपक मिल जाए तो वह मार्ग पर चलता है, कुमार्ग को त्याग देता है। उसी प्रकार मैं (साधक) उस तत्त्वज्ञान रूपी (शास्त्रों के ज्ञान रूपी) दीपक की रोशनी में चलने लगा, मंजिल को प्राप्त किया।

सूक्ष्मवेद में कहा है कि:- ‘‘सत्य भक्ति करे जो हंसा, तारूं तास के इकोतर बंशा।’’

शब्दार्थ:- परमात्मा जी ने कहा है कि जो साधक शास्त्रोक्त सत्य साधना भक्ति करता है तो मैं उसकी एक सौ एक (101) पीढ़ी को संसार सागर से पार कर दूँगा यानि पूरे वंश का मोक्ष प्रदान कर दूँगा।

प्रिय पाठको! मेरी (लेखक की) तो एकोतर पीढ़ी निःसंदेह पार होंगी। मेरे को दीक्षा देने का अधिकार मेरे पूज्य गुरूदेव स्वामी रामदेवानंद जी ने दिया है। जो भक्त/भक्तमति मेरे से दीक्षा लेकर शास्त्र विरूद्ध पुरानी साधना त्यागकर शास्त्रोक्त साधना अपनी आँखों से शास्त्रों में देखकर विश्वास के साथ आजीवन करेगा, वह तथा उसकी इकोतर (101) पीढ़ियाँ भवसागर से पार हो जाऐंगी।

  • कृप्या विश्वास के लिए पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 445 पर ‘‘परमात्मा कबीर जी की भक्ति से हुए भक्तों को लाभ‘‘ अध्याय में।

शास्त्रोक्त साधना तथा शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (साधना) में क्या अंतर है?

उत्तर:- यह ऊपर बता दिया है कि जो शास्त्र विरूद्ध भक्ति साधना करता है, उसको कुछ भी आध्यात्मिक लाभ नहीं होता। शास्त्र अनुकूल साधना करने से सर्व लाभ मिलते हैं।

शंका:- कुछ व्यक्ति कहते हैं कि रामपाल श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी की पूजा छुड़वाता है।

समाधान:- यह सरासर गलत है। मैं (लेखक) इन देवताओं को शास्त्रोक्त साधना करने के मूल मंत्र देता हूँ। जैसे श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा 16-17 में कहा है कि यह संसार ऐसा जानों जैसे पीपल का वृक्ष उल्टा लटका है। ऊपर को मूल (जड़) तो परम अक्षर पुरूष है। तना अक्षर पुरूष है। उससे मोटी डार निकली है, वह क्षर पुरूष यानि काल ब्रह्म है जिसे ज्योति निरंजन भी कहते हैं। उस डार से तीनों गुण रूपी (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव रूपी) शाखाऐं निकली हैं तथा उन शाखाओं पर लगे पत्ते संसार का अंश जानो।

विचार करो पाठकजनो! हम आम का पौधा वन विभाग की नर्सरी से लाकर जमीन में गढ्ढ़ा बनाकर रोपेंगे। उसकी जड़ की सिंचाई करेंगे। उद्देश्य रहेगा कि यह पौधा पेड़ बने और शाखाओं को फल लगें और हम खाऐं और अन्य को खिलाऐं या बेचकर अपना निर्वाह चलाऐं। क्या हम पौधे की शाखाओं को तोड़ फैंकेंगे? उत्तर है कभी नहीं। इसी प्रकार तीनों देवता (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) प्राणी को कर्मों का फल देते हैं। ये हमारी साधना के अभिन्न अंग हैं। इनको छोड़ नहीं सकते। इन तीनों देवताओं से लाभ लेने के विशेष मंत्र हैं जो सूक्ष्म वेद में बताए हैं जो मेरे पास हैं। विश्व में किसी के पास नहीं हैं।

जैसे भैंसा (झोटा) होता है। उस भैंसे का एक मूल मंत्र है। उससे उसको पुकारने से वह तुरंत सक्रिय हो जाता है। वह उस मंत्र के वश है। उसके बस की बात नहीं रहती। वह मंत्र हुर्र-हुर्र है जिसको सुनते ही भैंसे के कान खड़े हो जाते हैं। इस मंत्र का प्रयोग वह व्यक्ति करता है जिसने अपनी भैंस को भैंसे से गर्भ धारण करवाना होता है। यदि उस पशु को उसके प्रचलित नाम भैंसा-भैंसा करके पुकारें तो वह टस-से-मस नहीं होता। ठीक इसी प्रकार इन तीनों देवताओं (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) के यथार्थ मंत्र साधना करने के हैं जिनके जाप से ये शीघ्र प्रभावित होते हैं तथा तुरंत कर्म फल देते हैं।

हमने पूजा मूल रूप परम अक्षर ब्रह्म यानि परमेश्वर को ईष्ट रूप मानकर करनी है। जैसे आम के पौधे की जड़ की सिंचाई (पूजा) करने से पौधे के सर्व अंग विकसित होते हैं यानि सर्व देवता प्रसन्न होते हैं। शास्त्रविधि विरूद्ध साधना वह है जिसमें संसार रूपी पौधे को शाखाओं की ओर से जमीन में गढ़ा खोदकर मिट्टी में गाड़कर इन शाखाओं की सिंचाई (पूजा) करते हैं, जड़ को ऊपर कर देते हैं जो व्यर्थ है। मूर्ख ही ऐसा कर सकते हैं, बुद्धिमान नहीं।

कृपया देखें पृष्ठ नं. 6 पर भी दो चित्र आम के पौधे के जिनमें शास्त्रविरूद्ध और शास्त्र अनुकूल साधना चित्रों द्वारा समझाई है।

यह तत्वज्ञान परमेश्वर कबीर जी ने बताया है तथा मेरे पूज्य गुरूदेव स्वामी रामदेवानंद जी की कृपा व आशीर्वाद से मुझे समझ आया है। यह अटल सत्य ज्ञान है, परंतु जन-साधारण यानि वर्तमान सर्व मानव के लिए इतना जटिल है जितना चार सौ (400) वर्ष पूर्व वैज्ञानिक निकोडीन कोपरनिकस ने कहा था कि सूर्य के पृथ्वी के चारों ओर घूमने से दिन-रात नहीं बनते। पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है, जिस कारण से दिन-रात बनते हैं। उस समय सबकी धारणा थी कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। इस कारण दिन-रात बनते हैं। उस समय उस सच्चे वैज्ञानिक का धर्मांध व्यक्तियों ने जनता को भड़काकर इतना प्रबल विरोध किया था कि यह झूठ बोलता है। यह धर्म के विरूद्ध है। इसको फाँसी पर लटकाकर मार डालो। उस देश में गवर्नर को दण्ड देने व क्षमा करने का अधिकार था। कहते हैं कि गवर्नर ने वैज्ञानिक से कहा था कि आप एक बार जनता के सामने कह दें कि पृथ्वी नहीं घूमती। सूर्य घूमने से दिन-रात बनते हैं। मैं आपको क्षमा कर दूँगा। परंतु सत्य के पुजारी वैज्ञानिक ने कहा कि यह असत्य है, मैं कभी नहीं कहूँगा, जो करना है करो। उस सच्चे व्यक्ति को उस समय फाँसी पर लटका दिया गया था। बाद में चार सौ वर्ष पश्चात् उस दिवांगत वैज्ञानिक की आत्मा से विश्व ने क्षमा याचना की कि आपका बताया विधान सत्य था। हमको क्षमा करना। यही दशा मेरी है। मैं कहता हूँ कि ब्रह्मा-विष्णु-शिव नाशवान हैं। इनकी जन्म-मृत्यु होती है। इनके माता-पिता हैं। जिन पुराणों को आप सत्य मानते हो, उन्हीं में प्रमाण दिखा दिए हैं। धर्मांध संत-मण्डलेश्वर, अखाड़ों के महंत-जन मेरे सत्य ज्ञान का घोर विरोध कर तथा करवा रहे हैं। जिस कारण से मेरे ऊपर झूठे मुकदमें बनवाकर जेल में डाला जाता है। (सन् 2006 में झूठा मुकदमा बनाया। इक्कीस महीने जेल में रहा।) प्रचार बंद करवाया जाता है। परंतु वर्तमान में शिक्षित मानव है। सब प्रमाण ग्रन्थों में हैं। इसलिए मैं जीवित हूँ। यदि सौ वर्ष पूर्व यह ज्ञान बताता तो कब का परलोक चला गया होता।

विशेष:- यहाँ पर यह बताना अनिवार्य समझता हूँ कि दास (लेखक) तथा दास के अनुयाई पाँचों वेदों (सूक्ष्म वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) तथा गीता जी में बताए अनुसार भक्ति व साधना करते हैं। यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र 25 तथा 26 में कहा है:-

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 25

सन्धिछेदः- अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः।
प्रणवैः शस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते।।(25)

अनुवादः- जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूत्र्ति करता है (पदैः) श्लोक के चैथे भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दूध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। (वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है।)

भावार्थः- तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है।

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 26

सन्धिछेद:- अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम्।
वैश्वदैवम् सरस्वत्या तृतीयम् आप्तम् सवनम्।।(26)

अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य के उदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों के मालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो (ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य में करने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या) अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता है वह जगत् का उपकारक सन्त है।

भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में मन्त्र 25 में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्र्याी को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है।

जैसा कि इन वेद मंत्रों में स्पष्ट किया है कि तत्त्वदर्शी संत शास्त्रों के सांकेतिक शब्दों को ठीक से समझता व समझाता है। गूढ़ रहस्यों को उजागर करता है। तीन समय की स्तुति प्रतिदिन करने को कहता है। स्वयं भी करता है तथा अनुयाईयों से भी करवाता है। हम (लेखक तथा मेरे अनुयाई) तीन समय सुबह, दोपहर तथा शाम को स्तुति (आरती) करते हैं। दोपहर को बारह बजे के बाद विश्व के सर्व देवी-देवताओं की स्तुति (सम्मान आरती) करते हैं। पूजा परम अक्षर ब्रह्म की करते हैं। जैसे देश के राजा (प्रधानमंत्री जी) को मुखिया रूप में विशेष सम्मान देते हैं तथा अन्य मंत्रियों व अधिकारियों को भी नमस्कार करते हैं। वे अच्छे नागरिक होते हैं। इसी प्रकार हम पूजा तो परम अक्षर ब्रह्म की करते हैं तथा सम्मान सब का करते हैं।