श्रीमद भगवद गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में प्रमाण है की
गीता जी के अनुसार व्रत करना मना है
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Bhagavad Gita: Chapter 6, Verse 16 |
न, अति, अश्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्, अनश्नतः,
न, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन।।16।।
न, अति, अश्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्, अनश्नतः,
न, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन।।16।।
अनुवाद: उपरोक्त श्लोक 10 से 15 में वर्णित विधि वाली एकान्त में बैठ कर विशेष आसन आदि लगा कर साधना करना तो मेरे तक का लाभ प्राप्ति मात्र है, यह वास्तव में श्रेष्ठ नहीं है। गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अपने द्वारा दिए जाने वाले लाभ (गति) को अश्रेष्ठ बताया है। इसलिए (अर्जुन) हे अर्जुन (तु) इसके विपरीत उस पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने वाली (योग) भक्ति (न एकान्तम्) न तो एकान्त स्थान पर विशेष आसन या मुद्रा में बैठने से तथा (न) न ही (अति) अत्यधिक (अश्नतः) खाने वाले की (च) और (अनश्नतः) न बिल्कुल न खाने वाले अर्थात् व्रत रखने वाले की (च) तथा (न) न ही (अति) बहुत (स्वप्नशीलस्य) शयन करने वाले की (च) तथा (न) न (एव) ही (जाग्रतः) हठ करके अधिक जागने वाले की (अस्ति) सिद्ध होती है अर्थात् उपरोक्त श्लोक 10 से 15 में वर्णित विधि व्यर्थ है। (16)
हिन्दी: उपरोक्त श्लोक 10 से 15 में वर्णित विधि वाली एकान्त में बैठ कर विशेष आसन आदि लगा कर साधना करना तो मेरे तक का लाभ प्राप्ति मात्र है, यह वास्तव में श्रेष्ठ नहीं है। गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अपने द्वारा दिए जाने वाले लाभ को अश्रेष्ठ बताया है। इसलिए हे अर्जुन इसके विपरीत उस पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने वाली भक्ति न तो एकान्त स्थान पर विशेष आसन या मुद्रा में बैठने से तथा न ही अत्यधिक खाने वाले की और न बिल्कुल न खाने वाले अर्थात् व्रत रखने वाले की तथा न ही बहुत शयन करने वाले की तथा न ही हठ करके अधिक जागने वाले की सिद्ध होती है अर्थात् उपरोक्त श्लोक 10 से 15 में वर्णित विधि व्यर्थ है।
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