श्रीमद भगवद गीता अध्याय 7 श्लोक 15 में प्रमाण है की
गीता जी में तीनों देवों की पूजा को व्यर्थ बताया गया है
![]() |
Geeta Chapter 7 Verse 15 |
न, माम्, दुष्कतिनः, मूढाः, प्रपद्यन्ते, नराधमाः,
मायया, अपहृतज्ञानाः, आसुरम्, भावम्, आश्रिताः।।15।।
मायया, अपहृतज्ञानाः, आसुरम्, भावम्, आश्रिताः।।15।।
अनुवाद: (मायया) रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी रूपी त्रिगुणमई माया की साधना से होने वाला क्षणिक लाभ पर ही आश्रित हैं अन्य साधना नहीं करना चाहते अर्थात् इसी त्रिगुणमई माया के द्वारा (अपहृतज्ञानाः) जिनका ज्ञान हरा जा चुका है जो मेरी अर्थात् ब्रह्म साधना भी नहीं करते, इन्हीं तीनों देवताओं तक सीमित रहते हैं ऐसे (आसुरम् भावम्) आसुर स्वभावको (आश्रिताः) धारण किये हुए (नराधमाः) मनुष्यों में नीच (दुष्कृतिनः) दूषित कर्म करनेवाले (मूढाः) मूर्ख (माम्) मुझको (न) नहीं (प्रपद्यन्ते) भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं। (15)
केवल हिन्दी अनुवाद: मायाके द्वारा अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी रूपी त्रिगुणमई माया की साधना से होने वाला क्षणिक लाभ पर ही आश्रित हैं जिनका ज्ञान हरा जा चुका है जो मेरी अर्थात् ब्रह्म साधना भी नहीं करते, इन्हीं तीनों देवताओं तक सीमित रहते हैं ऐसे आसुर स्वभावको धारण किये हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करनेवाले मूर्ख मुझको नहीं भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं। (15)
भावार्थ - गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 का भावार्थ है कि जो साधक स्वभाव वश तीनों गुणों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी तक की साधना से मिलने वाले लाभ पर ही आश्रित रहकर इन्हीं तीनों प्रभुओं की भक्ति से जिन का ज्ञान हरा जा चुका है वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, शास्त्र विधि विरुद्ध भक्ति रूपी दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ ब्रह्म को भी नहीं भजते गीता अध्याय 7 श्लोक 20 से 23 का भी इन्हीं से लगातार सम्बन्ध है।
Social Plugin