उसी में लीन हो जाता है। यह दूसरा अव्यक्त हुआ। अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि उस अव्यक्त से भी दूसरा जो अव्यक्त (पूर्णब्रह्म) है वह परम दिव्य पुरुष सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। यह तीसरा अव्यक्त हुआ। यही प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में भी है कि नाश रहित उस परमात्मा को जान जिसका नाश करने में कोई समर्थ नहीं है। अपने विषय में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) प्रभु अध्याय 4 मंत्र 5 तथा अध्याय 2 श्लोक 12 में कहा है कि मैं तो जन्म-मत्यु में अर्थात् नाशवान हूँ।
उपरोक्त संसार रूपी वक्ष की मूल (जड़) तो परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म कविर्देव है। इसी को तीसरा अव्यक्त प्रभु कहा है। वक्ष की मूल से ही सर्व पेड़ को आहार प्राप्त होता है। इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि वास्तव में परमात्मा तो क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म तथा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म से भी अन्य ही है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है वही वास्तव में अविनाशी है।
1. क्षर का अर्थ है नाशवान। क्योंकि ब्रह्म अर्थात् गीता ज्ञान दाता ने तो स्वयं कहा है कि अर्जुन तू तथा मैं तो जन्म-मंत्यु में हैं (प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 में)।
2. अक्षर का अर्थ है अविनाशी। यहां परब्रह्म को भी स्थाई अर्थात् अविनाशी कहा है। परंतु यह भी वास्तव में अविनाशी नहीं है। यह चिर स्थाई है जैसे एक मिट्टी का प्याला है जो सफेद रंग का चाय पीने के काम आता है। वह तो गिरते ही टूट जाता है। ऐसी स्थिति ब्रह्म (काल अर्थात् क्षर पुरुष) की जानें। दूसरा प्याला इस्पात (स्टील) का होता है। यह मिट्टी के प्याले की तुलना में अधिक स्थाई (अविनाशी) लगता है परंतु इसको भी जंग लगता है तथा नष्ट हो जाता है, भले ही समय ज्यादा लगे। इसलिए यह भी वास्तव में अविनाशी नहीं है। तीसरा प्याला सोने (स्वर्ण) का है। स्वर्ण धातु वास्तव में अविनाशी है जिसका नाश नहीं होता। जैसे परब्रह्म (अक्षर पुरुष) को अविनाशी भी कहा है तथा वास्तव में अविनाशी
तो इन दोनों से अन्य है, इसलिए अक्षर पुरुष को अविनाशी भी नहीं कहा है । कारण :- सात रजगुण ब्रह्मा की मत्यु के पश्चात् एक सतगुण विष्णु की मंत्यु होती है। सात सतगुण विष्णु की मत्यु के पश्चात् एक तमगुण शिव की मत्यु होती है। जब तमगुण शिव की 70 हजार बार मंत्यु हो जाती है तब एक क्षर पुरुष (ब्रह्म) की मत्यु होती है। यह परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का एक युग होता है। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म का एक दिन तथा इतनी ही रात्री होती है। तीस दिन रात का एक महीना, बारह महीनों का एक वर्ष तथा सौ वर्ष की परब्रह्म (अक्षर पुरुष) की आयु है। तब यह परब्रह्म तथा सर्व ब्रह्मण्ड जो सतलोक से नीचे के हैं नष्ट हो जाते हैं। कुछ समय उपरांत सर्व नीचे के ब्रह्मण्डों (ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोकों) की रचना पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर पुरुष करता है। इस प्रकार यह तत्व ज्ञान समझना है। परन्तु परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) तथा उसका सतलोक (ऋतधाम) सहित ऊपर के अलखलोक, अगम लोक तथा अनामी लोक कभी नष्ट नहीं होते।
इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि वास्तव में उत्तम प्रभु अर्थात् पुरुषोत्तम तो ब्रह्म (क्षर पुरुष) तथा परब्रह्म (अक्षर पुरुष) से अन्य ही है जो पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरुष) है। वही वास्तव में अविनाशी है। वही सर्व का धारण-पोषण करने वाला संसार रूपी वक्ष की मूल रूपी पूर्ण परमात्मा है। वक्ष का जो भाग जमीन के तुरंत बाहर नजर आता है वह तना कहलाता है। उसे अक्षर पुरुष (परब्रह्म) जानो। तने को भी आहार मूल (जड़) से प्राप्त होता है। फिर तने से आगे वक्ष की कई डार होती हैं उनमें से एक डार ब्रह्म (क्षर पुरुष) है। इसको भी आहार मूल (जड़) अर्थात् परम अक्षर पुरुष से ही प्राप्त होता है। उस डार (क्षर पुरुष/ब्रह्म) की मानों तीन गुण (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु तथा तमगुण-शिव) रूपी शाखाएं हैं। इन्हें भी आहार मूल (परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) से ही प्राप्त होता है। इन तीनों शाखाओं से पात रूप में अन्य प्राणी आश्रित हैं। उन्हें भी वास्तव में आहार मूल (परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) से ही प्राप्त होता है। इसीलिए सर्व को पूज्य पूर्ण परमात्मा ही सिद्ध हुआ। यह भी नहीं कहा जा सकता कि पत्तों तक आहार पहुंचाने में तना, डार तथा शाखाओं का कोई योगदान नहीं है। इसलिए सर्व आदरणीय हैं, परन्तु पूजनीय तो केवल मूल (जड़) ही होती है। आदर तथा पूजा में अंतर होता है। जैसे पतिव्रता स्त्री सत्कार तो सर्व का करती है, जैसे जेठ का बड़े भाई सम, देवर का छोटे भाई सम, परन्तु पूजा अपने पति की ही करती है अर्थात् जो भाव अपने पति में होता है ऐसा अन्य पुरुष में पतिव्रता स्त्री का नहीं हो सकता।
दूसरा उदाहरण एक समय हरियाणा प्रांत में बाढ़ आई थी। उस समय छः सौ करोड़ का नुकसान हुआ था। उसकी पूर्ति हरियाणा सरकार नहीं कर सकती थी, क्योंकि हरियाणा सरकार का पूरे वर्ष का बजट ही नौ सौ करोड़ रूपये का था। देश के प्रधान मंत्री जी ने वह क्षति पूर्ति की थी। उस छः सौ करोड़ रूपयों का वितरण हरियाणा सरकार के अधिकारियों तथा कर्मचारियों ने किया था। राहत प्राप्तकर्ता जो अनजान हैं, वे उस वितरण कर्ता को ही राहत कर्ता मान लेते हैं। उन्हीं से भविष्य में भी अन्य राहत की आशा करते रहते हैं। उसी की पूजा (रिश्वत आदि देना) करते रहते हैं। परन्तु जो शिक्षित हैं वे जानते हैं कि इस कर्मचारी का कितना योगदान है। वे आदर तो करते हैं परन्तु पूजा (रिश्वत आदि देना) नहीं करते। न ही अन्य कार्य की सिद्धि की आशा करते।
बाढ़ राहत राशि वितरण के पश्चात् उसी क्षेत्र में प्रांत के मंत्री जी आए, उन्होंने कहा कि मैंने आप के क्षेत्र में दस लाख रूपया दिया। उसी गाँव की सूची से नाम पढ़कर सुनाए 1. रामअवतार को दस हजार रूपये... आदि दिया। फिर प्रांत के मुख्यमंत्री जी उसी गाँव में आए। उन्होंने भी वही सूची पढ़ी तथा कहा कि मैंने आपके गाँव में दस लाख रूपये दिये 1. रामअवतार को दस हजार रूपये आदि दिए। फिर उसी गाँव में देश के प्रधानमंत्री जी आए। उन्होंने भी कहा मैंने आपके गाँव को दस लाख रूपये दिए तथा वही सूची पढ़कर सुनाई जिसमें लिखा था 1. रामअवतार को दस हजार रूपये दिए। रामअवतार कह रहा है कि यह सब झूठ बोल रहे हैं। मुझे तो रूपये पटवारी ने दिए हैं। वह अनजान रामअवतार अज्ञानता वश गाँव के पटवारी जी की ही पूजा कर अपने अन्य सर्व कार्यों की सिद्धि चाहता है। जो शिक्षित हैं वे जान लेते हैं कि प्रधानमंत्री जी राहत नहीं देते तो मुख्यमंत्री जी, मंत्री जी तथा पटवारी जी कुछ नहीं दे सकते थे। यदि मुख्यमंत्री जी भी अपने राहत कोश से राशी वितरण करते तो सौ-सौ रूपये कठिनता से बाढ़ पीड़ितों को दे पाते जो नाम मात्र होती। इस प्रकार समझदार व्यक्ति जान लेता है कि किसकी कितनी औकात (क्षमता) है। उसी आधार से उनमें आस्था रहती है। अनादरणीय कोई नहीं होता, परन्तु पूजा के लिए सोच-समझ कर चयन करता है। ठीक इसी प्रकार गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में कहा है कि अर्जुन बहुत बड़े जलाशय की (जिसका जल दस वर्ष भी वर्षा न हो तो भी समाप्त नहीं होता) प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाशय (जिसका जल एक वर्षा न होने से ही समाप्त हो जाता है) में जैसी आस्था रह जाती है, इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा से मिलने वाले लाभ के ज्ञान से परिचित होने के पश्चात् तेरी आस्था अन्य प्रभुओं में वैसी ही रह जाएगी। वह छोटा जलाशय बुरा नहीं लगता, परन्तु उसकी क्षमता का पता है कि यह तो काम चलाऊ है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में कहा है कि तीनों गुणों से जो कुछ भी हो रहा है (जैसे रजगुण-ब्रह्मा से जीवों की उत्पत्ति, सतगुण-विष्णु से स्थिति तथा तमगुण-शिव से संहार) इसका मुख्य कारण मैं (ब्रह्म/काल) ही हूँ। जो साधक तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की पूजा करते हैं वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ ब्रह्म की भक्ति भी नहीं करते। फिर अपनी भक्ति को अति घटिया (अनुत्तमाम्) कहा है। गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में, इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने से ही पूर्ण लाभ पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है। जो शास्त्र विधि अनुसार भक्ति है तथा अन्य प्रभुओं की ईष्ट रूप में साधना शास्त्र विधि के विरुद्ध होने से व्यर्थ है (प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में)। जैसे आम का पौधा नर्सरी से ला कर उसके मूल को जमीन में गड्डा खोद कर दबाएगें। फिर मूल की सिंचाई (पूजा) करेंगे तो पौधा बड़ा होगा तथा पेड़ बन जाएगा। फिर शाखाओं को फल लगेंगे। यदि कोई शाखाओं को जमीन में दबा कर, मूल ऊपर को करके पौधे की सिंचाई करेगा तो पौधा सूख जाएगा। (कप्या देखें सीधा बीजा हुआ व उल्टा बीजा हुआ भक्ति रूपी पौधे का चित्र इसी पुस्तक के पष्ठ 205-206 पर) भावार्थ है कि साधक को पूर्ण परमात्मा (मूल) की साधना (पूजा) ईष्ट रूप में करने से उसका फल तीनों ब्रह्मा, विष्णु, शिव (शाखाएँ) ही प्रदान करेंगे। क्योंकि आदि दिए। फिर उसी गाँव में देश के प्रधानमंत्री जी आए। उन्होंने भी कहा मैंने आपके गाँव को दस लाख रूपये दिए तथा वही सूची पढ़कर सुनाई जिसमें लिखा था 1. रामअवतार को दस हजार रूपये दिए। रामअवतार कह रहा है कि यह सब झूठ बोल रहे हैं। मुझे तो रूपये पटवारी ने दिए हैं। वह अनजान रामअवतार अज्ञानता वश गाँव के पटवारी जी की ही पूजा कर अपने अन्य सर्व कार्यों की सिद्धि चाहता है। जो शिक्षित हैं वे जान लेते हैं कि प्रधानमंत्री जी राहत नहीं देते तो मुख्यमंत्री जी, मंत्री जी तथा पटवारी जी कुछ नहीं दे सकते थे। यदि मुख्यमंत्री जी भी अपने राहत कोश से राशी वितरण करते तो सौ-सौ रूपये कठिनता से बाढ़ पीड़ितों को दे पाते जो नाम मात्र होती। इस प्रकार समझदार व्यक्ति जान लेता है कि किसकी कितनी औकात (क्षमता) है। उसी आधार से उनमें आस्था रहती है। अनादरणीय कोई नहीं होता, परन्तु पूजा के लिए सोच-समझ कर चयन करता है। ठीक इसी प्रकार गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में कहा है कि अर्जुन बहुत बड़े जलाशय की (जिसका जल दस वर्ष भी वर्षा न हो तो भी समाप्त नहीं होता) प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाशय (जिसका जल एक वर्षा न होने से ही समाप्त हो जाता है) में जैसी आस्था रह जाती है, इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा से मिलने वाले लाभ के ज्ञान से परिचित होने के पश्चात् तेरी आस्था अन्य प्रभुओं में वैसी ही रह जाएगी। वह छोटा जलाशय बुरा नहीं लगता, परन्तु उसकी क्षमता का पता है कि यह तो काम चलाऊ है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में कहा है कि तीनों गुणों से जो कुछ भी हो रहा है (जैसे रजगुण-ब्रह्मा से जीवों की उत्पत्ति, सतगुण-विष्णु से स्थिति तथा तमगुण-शिव से संहार) इसका मुख्य कारण मैं (ब्रह्म/काल) ही हूँ। जो साधक तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की पूजा करते हैं वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ ब्रह्म की भक्ति भी नहीं करते। फिर अपनी भक्ति को अति घटिया (अनुत्तमाम्) कहा है। गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में, इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने से ही पूर्ण लाभ पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है। जो शास्त्र विधि अनुसार भक्ति है तथा अन्य प्रभुओं की ईष्ट रूप में साधना शास्त्र विधि के विरुद्ध होने से व्यर्थ है (प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में)। जैसे आम का पौधा नर्सरी से ला कर उसके मूल को जमीन में गड्डा खोद कर दबाएगें। फिर मूल की सिंचाई (पूजा) करेंगे तो पौधा बड़ा होगा तथा पेड़ बन जाएगा। फिर शाखाओं को फल लगेंगे। यदि कोई शाखाओं को जमीन में दबा कर, मूल ऊपर को करके पौधे की सिंचाई करेगा तो पौधा सूख जाएगा। (कप्या देखें सीधा बीजा हुआ व उल्टा बीजा हुआ भक्ति रूपी पौधे का चित्र इसी पुस्तक के पष्ठ 205-206 पर)
भावार्थ है कि साधक को पूर्ण परमात्मा (मूल) की साधना (पूजा) ईष्ट रूप में करने से उसका फल तीनों ब्रह्मा, विष्णु, शिव (शाखाएँ) ही प्रदान करेंगे। क्योंकि
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